मामला: Dr. Jaishri Laxmanrao Patil v. Chief Minister & Ors., Civil Appeal No. 3123 of 2020, [2021] 15 SCR 715
मुख्य संवैधानिक प्रश्न:
क्या महाराष्ट्र राज्य द्वारा मराठा समुदाय को सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ा वर्ग (SEBC) घोषित कर 50% की सीमा से अधिक आरक्षण प्रदान करना संविधान के अनुच्छेद 14, 15(4), 16(4) और 342A के अनुरूप वैध है?
बहुमत निर्णय:
न्यायमूर्ति अशोक भूषण (न्यायमूर्ति एस. अब्दुल नज़ीर के साथ), न्यायमूर्ति एल. नागेश्वर राव, न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता और न्यायमूर्ति एस. रविंद्र भट ने संयुक्त रूप से निर्णय में कहा कि इंद्रा साहनी बनाम भारत सरकार (1992) के नौ-न्यायाधीशीय संविधान पीठ द्वारा प्रतिपादित 50% आरक्षण सीमा अब संविधानिक मान्यता प्राप्त कर चुकी है और इसका उल्लंघन केवल “असाधारण परिस्थितियों” में ही किया जा सकता है।
कोर्ट ने पाया कि:
- मराठा समुदाय को SEBC घोषित करना डेटा और सामाजिक तथ्यों के अनुरूप नहीं था। आयोग द्वारा प्रदत्त आँकड़े दर्शाते हैं कि मराठा समुदाय का प्रतिनिधित्व पहले से ही पर्याप्त है।
- अनुच्छेद 16(4) का उपयोग केवल तभी किया जा सकता है जब कोई समुदाय सार्वजनिक सेवाओं में पर्याप्त रूप से प्रतिनिधित्व से वंचित हो, न कि आनुपातिक प्रतिनिधित्व के आधार पर।
- मराठा समुदाय को 12% (शिक्षा) व 13% (नियुक्ति) आरक्षण देने वाला 2018 का SEBC अधिनियम (2019 में संशोधित) संविधान विरुद्ध पाया गया और इसे निरस्त किया गया।
- इंद्रा साहनी में निर्धारित 50% सीमा को चुनौती देने के कोई पर्याप्त आधार नहीं थे; अतः उसे पुनः विचार हेतु वृहद पीठ को भेजने की कोई आवश्यकता नहीं थी।
न्यायमूर्ति एस. रविंद्र भट का विशिष्ट मत:
उन्होंने कहा कि 50% सीमा “समानता के सार” की रक्षा करती है। इसे कमजोर करना जाति आधारित विभाजन को बढ़ावा देगा। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि अनुच्छेद 342A के तहत SEBC की पहचान का अधिकार अब राष्ट्रपति को है; राज्य केवल सुझाव दे सकते हैं, लेकिन अपनी सूचियाँ नहीं बना सकते।
संविधान (102वां संशोधन) अधिनियम, 2018 का परीक्षण:
संशोधन द्वारा जोड़े गए अनुच्छेद 338B, 342A और 366(26C) के प्रभाव पर चर्चा हुई। न्यायालय ने निर्णय दिया कि:
- राष्ट्रपति ही SEBC सूची प्रकाशित करेंगे (अनुच्छेद 342A(1)); राज्य केवल सुझाव दे सकते हैं।
- यह संशोधन संघात्मक ढांचे का उल्लंघन नहीं करता, क्योंकि केवल पहचान का कार्य केंद्र को सौंपा गया है, जबकि राज्य अब भी आरक्षण की मात्रा, स्वरूप और लाभ तय कर सकते हैं।
अल्पमत निर्णय (न्यायमूर्ति अशोक भूषण और न्यायमूर्ति अब्दुल नज़ीर):
उन्होंने माना कि संसद का आशय राज्यों की पहचान की शक्ति को समाप्त करना नहीं था। उन्होंने अनुच्छेद 342A(2) में प्रयुक्त “केन्द्रीय सूची” शब्द को केवल केंद्र सरकार से संबंधित सेवाओं तक सीमित माना।
प्रासंगिक कानूनी उपबंध व निर्णय:
- अनुच्छेद 15(4), 16(4), 338B, 342A, 366(26C)
- Indra Sawhney v. Union of India (1992)
- M. Nagaraj v. Union of India (2006)
- T.M.A. Pai Foundation v. State of Karnataka (2002)
- Keshavananda Bharati v. State of Kerala (1973)
निष्कर्ष:
मराठा आरक्षण को संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 16 का उल्लंघन मानते हुए निरस्त किया गया। 50% आरक्षण सीमा अभी भी मान्य और बाध्यकारी है, जिसे केवल विशिष्ट असाधारण परिस्थितियों में ही पार किया जा सकता है। संविधान का 102वां संशोधन वैध है और संघात्मक ढांचे का उल्लंघन नहीं करता।